हरेक परगामे आघे बर्हटी जाउ बाबु टुँ

सागर कुस्मी "संगत"
२४ फाल्गुन २०७९, बुधबार
हरेक परगामे आघे बर्हटी जाउ बाबु टुँ

गजल
हरेक परगामे आघे बर्हटी जाउ बाबु टुँ ।
समाजमे मजा काम कर्टी जाउ बाबु टुँ ।

नारीनके हक अधिकारके लाग यहाँ,
कुसंस्कार हटाके लर्टी जाउ बाबु टुँ ।

पर्ह लिखके ज्ञानगुणके बात सिखके,
हरेक नारीनहे ज्ञान छर्टी जाउ बाबु टुँ ।

कहाँसम रबो भन्सामे उठो जागो आब,
पहिचानके लाग आघे सर्टी जाउँ बाबु टुँ ।

टुँ हुइटो नारी इ समाजके सृष्टि ओ दृष्टि,
इ समाजमे खुशियाली भर्टी जाउ बाबु टुँ ।

सागर कुस्मी “संगत”
कैलारी-८ कैलाली

हरेक परगामे आघे बर्हटी जाउ बाबु टुँ

सागर कुस्मी "संगत"