जिन्गिक सागर

दिपक चौधरी “असीम“
८ बैशाख २०८०, शुक्रबार
जिन्गिक सागर

कविता

जिन्गिक सागर

मन मन्डिल, मैयाँ पुजा
मैयाँ मनके सागर
मैयाँ टपस्या, मैयाँ जिन्गि
जिन्गि मैयाँके सागर
सुखडुखके मिश्रण हो जिन्गि
जलमसे मृत्युसमके यात्रा हो जिन्गि
समय जिन्गिक डगर
डग्रा समयक् यात्रा
यात्रा हो संघर्षके सागर
मन मन्डिल, मैयाँ पुजा
मैयाँ मनके सागर ।

जिन्गि निरन्तर चलठ
लडियक पानीहस बहठ
घरिक सुइहस नेंगठ
कबु बयाल बन्के, कबु आँढि बन्के
टे कबु बेरुन्डर टुफान बन्के
कबु सिट्टर छाहिं, डन्डुर घाम सक्कुहुन प्यारा लग्ना
कबु सहे नैसेक्ना जार टे कबु रहे नैसेक्ना टाटुल घाम
खेल्ना खेलैना
हँसैना रुवैना हो जिन्गि
टबे हुइ सायड जिन्गि सुखडुखके सागर
मन मन्डिल, मैयाँ पुजा
मैयाँ मनके सागर ।

सुखमे हँस्टि खेल्टि
सुन्डर सपना डेखठ जिन्गि
सपना अन्सार कल्पना करठ जिन्गि
नैहुइठ पुरा सपना जब
सुटके चक्नाचुर हुइठ
मन रुइठ चोट हिरडामे लागठ
टब पटा चालट
का हो जिन्गि ?
जिन्गि सपना अन्सारके मेहनट
मेहनट अन्सारके फल पैना कल्पना
हो, जिन्गि हो आसेआसके सागर
मन मन्डिल, मैयाँ पुजा
मैयाँ मनके सागर
मैयाँ टपस्या, मैयाँ जिन्गि
जिन्गि मैयाँके सागर ।

दिपक चौधरी “असीम“
कैलारी २ बसौटी, कैलाली

जिन्गिक सागर

दिपक चौधरी “असीम“