गजल
आगिक लहर महिन अब, बुटैना बा डाई ।
वर्षौ से सुटल समाज, उठैना बा डाई ।
माटिक गग्री–मातिक करुवा, सिसा जस्ते फुटाइहस्,
अन्धविश्वास परम्परा, फुटैना बा डाई ।
रङगी–चङगी गगनचम्बी, महलमे सुटल नेतन,
तान–तानके झोप्रामे, सुतैना बा डाई ।
छोटेसे लालन–पालन, करके महिन पालल् खर्च,
एक–एक कर्के अब, जुटैना बा डाई ।
मारपित गारीभुवा, हिलाकिचा सहटी,
सारा जिन्गी तोहाँर नाउँमे, लुटैना बा डाई ।
अंकर ‘अन्जान सहयात्री’
–पथरैया–४ जबलपुर कैलाली