चिठ्रीचिठ्रा

मुना चौधरी
१७ बैशाख २०८०, आईतवार
चिठ्रीचिठ्रा

कथा

चिठ्रीचिठ्रा

बहुट दिन होगैल रहे । बड्रिमे कुहिरा लागल नैरहे । फुलम् भौंरा भुनभुनाइट बिलगाँइट । भांैरा अपने ढुनमे रहिंट । ऋतु अपने वेगमे नेंगटेहे । उहिहे अपने बुह्रापा हुइनाके चिन्ता फें नैरहिस, ना टे अपने निसन्तान हुइनाके पिडा रहिस । बड्री भर करिया बड्री चारुओर रहिके फेन बसन्त अपने लहरमे चल्टी रहे । जेकर पिडा बड्रीहे पटै नैरहिस । बड्रीके पिडा सूर्यहे का पटा रहि । सक्कु चिज मजा ओ मन लोभ्वइना लग्लेसे फेन कौनो ना कौनो रुपमे सक्कु चिजहे पीडित डेखुँ मै ।

आखिरमे मै फेन ऋतु जस्टे काहे बने नैसेक्नु । मै अपन लहरमे काहे नेंगे नैसेक्नु । मै उडास होजाउँ । मै अपनहे कोहे ढकमक फुलके रहे नैसेकुँ ? मै खाली हुइटहँु दिनेदिने ओ पलपलमे । मनै खाली हुइलेसे ओकर भरना दिन कबु नैआइठ काहे ? मोर भाग्यमे लिखल् रेखा कनि कहाँ जाके अट्कल रहे । मै पचास बरसके होसेकल रहुँ । मने मोर सन्तान नैरहंै । मै डाइ बने नैसेक्नु । मोर डेवरवक् डुइठो छावा रहिन । टबफेन मै खुसी नैरहुँ । काहेकि मोर मुलोपर मोर किरया करुइया मोर कोखसे जन्मल मोर अपन सन्तान नैरहंै । निसन्तान हुइनक् पीडा महिन कट्ना सटाए उ मोर छाती भिट्टर ।

मोर देवरानी अपन छावान्हे हेरचाह करिन टे मोर फेन सन्तान रटंै टे छाटी भरके वात्सल्य लुटैनस् लागे । देवरके छुट्की छावा महिन बरे मन परे । मै उहिहे प्रायः अपनसँग ढारे खोजु मने ऊ महिन्से डुरडुर भागे । अपन डाइहे महिनसे ढेर मन पराए उ । महिन टु मोर डाइ नैहोउ, कहे उ ।

ओकर बाट सुनके मोर छाटी भिट्टर बहुट पीडा होए । मै मातृ वात्सल्यसे छट्पटाउँ । मोर सन्तानसँग हजारौं राट अपन खटियामे बिटाइ चाहुँ । ओकरसँग टोंटे बोलीमे बाट करना मन लागे । मोर वक्षस्थलमे रहल दुधके धारा अपन सन्तानके लाग बहाइ चाहुँ । अपन सन्तानके गाला निचोरना चाहुँ । हजारौँ चुम्बनके झोंक्का डेटि, कनास मन लागे, । ‘मोर बाबा, मोर छावा ।’

मै जेडा फोहाउँ अइसिन सपनामे खेले पाउँ टे । एकदिन कोइ नैडेख्ना मेरके कोठाके ढोका बन्ड करनु । अपन पुरान फरिया चिरके चिठ्रीचिठ्राके व्यवस्था करनु । उज्जर चिठ्रक् गोल छोट ढेल्का बनैनु । उ ढेल्कक् मुन्टा बनैनु । पियर चिठ्रक् हाँठ ओ गोर बनैनु । कपारके ओ हाँठ, गोर जोरके एक पुतली बनैनु चिठ्रीचिठ्राके । उ पुतलीहे अपन आघे ढरनु ओ टरेसे उप्परसम हेर्नु । ओकर मुहार उज्जर ओ गोल रहे । ओकर मुहार बरे निर्दाेष डेखाइस । ओकर मुहार महिने हेरेहस लागल । मनमने कनु, मोर छावा । मोर राजा । कोइ नैडेख्ना मेरके मै डाइ बनसेकल रहुँ । चिठ्रीचिठ्राके पुतलीहे मै छावा बनैनु ।

एक ठो छोटमोट टोपी, सुरुवाल ओ कमिज सुइ ओ धागाले सिनु । उ लुग्रा चिठ्रीचिठ्राके छोवाहे लगाडेनु । उ बरे सुन्दर डेखाइल । ओकर हात, गोर हेरनु । मानौँ मै अपन गर्भसे जन्माइल हो उ । उहिहे अपन वक्षस्थलमे ढारके मातृ वात्सल्य लुटैनु । वक्षस्थलके अमृतके प्याला पिलैनु । हजारौँ रातके शोकाकूल ममतामय प्रेम लुटैनु । अपन छाटीमे चप्कैलेरनु । अपन कोनामे सुटैनु । अपन उँक्वारमे डट्के डब्नु । उहिहे डट्के निचोरनु । गाल लाल हुइना मेरके गलचुम्मा खैनास मन लागल । पाटिर अंग्री चलैनु । मने, उहिहे जत्रा चलैलेसे फेन ऊ शान्त ओ ज्ञानी बनके कबु कुछ नैबोलल । ऊ कबु नैहिलल । उ मोर देवरवक् छावा जस्टे, टुँ मोर डाइ नैहोउ कहिके कबु नैकहल, टबे मै उहिहे अपन छोवाके रुपमे स्वीकरनु ।

उ मोर वक्षस्थल चुसके ममतामय आनन्दके अनुभव करना मन लागल । मोर सारा जिउ गुड्गुडाके गुलगुल होगैल । कगडीहे निचोरे जस्टे ओकर गला निचोरनु । मोर कठ्वक् डुवार बन्ड रहे । मै देवरवक् छावासे ढेर खुसी चिठ्रीचिठ्राके छावाक्सँग रहुँ । काहेकि मोर बनाइल छावा, ‘टँु मोर डाइ नैहोउ’ कहिके कबु नैकहल । उ महिन सन्तान सुख डेहेटेहे मने मै उहिहे मातृ वात्सल्य मनसे लुटाइ टहुँ । मोर छावा मोरपर समर्पित रहे कलेसे मै ओकरमे ।

मै कबु उहिहे वक्षस्थलमे टाँसके ढारु । कबु उँक्वारमे डट्के बाँन्ढके गलचुम्मा खाउँ । मै मुसुकमुसुक हाँसु काहेकि मै मातृ प्रेमके अनुरागमे टुबसे डुबगिल रहुँ । उ महिनहे स्वर्गके अनुभूति डेहे । मै उहिहे सक्कुहुनसे नुकाके डराजमे ढारुँ । मोर गोस्या अफिस जाइँट टे मै सक्कुहुनसे नुकवाके अपन छावासँग खेलुँ । देवरवक् छावा ओर हेरना मन नैलागे महिन । काहेकि ओइने महिनहे कहैं, ‘टुँ मोर डाइ नैहोउ’ मै फेन ओइनहे मनमने कुहँ, ‘मै फेन डाइ हुँ । मोर फेन छावा बा । मने, ओइन जस्टे कठोर शब्द मोर छावा नैबोलठ । मोर भावना बुझठ, जेकरसँग मै दिनभर मातृ वात्सल्यके लडिया बहाइ सेक्ठँुु ।’

मै खुसी रहुँ । काहेकि मोर सन्तान डराजभिट्टर रहठ । मै जबफेन उहिहे मातृ वात्सल्यके छहँुरीमे शीतलता डेहे सेक्ठँु । मै जबफेन उहिहे निचोरे सेक्ठँु । उँक्वार भर बाँन्ढके ढारे सेक्ठुँ ।

निसन्तान रनाके पीडा मोर भिट्टर पलि रहे । ओम्हें सारा संसारके आँखीमे मै बाँझ खेटुवा जस्टे रहुँ । जोन खेटुवामे कबु बाली नैलागठ । एक दिन ससुइया महिन मिलसे गोहुँ पिसके नानेक कली । गहुँ बोकके मै मिलगैनु । वहाँ बैरीयावाली ओ कसहावाली काकी मिलमे धान कुटाइ आइल रहैं । महिन डेख्टीकिल बैरीयावाली काकी पुछ्ली, ‘पटुहियक् कैठो छावाछाइ हुइनै ?’ मै कुछ बोल्नासे पहिले कसहावाली काकी कली, ‘छावाछाइ नैहुइटिस । निसन्तान बा । बाँझ बा ।’ हुँकार बाट सुनके बैरीयावाली काकी कली, ‘पट्वारनी बुरहियक् बर्की पटुहिया यिहे रना ?’ ‘हो यिहे हुइटी ।’ कहटी बैरीयावाली काकी महिनहे पुछ्ली, ‘गोहुँ पिसाइ आइलो पटुहिया ?’ ओइनके बाट सुनके महिन कुछ बोल्नास मन नैलागल । मै भावविहवल हुइनु । मै कपार हिलैटी हो कहिके इसारा किल करनु । अइसिन बाट मै कत्रा सुनले रहुँ । यिहे बाट और कत्रा सुन्ना बाँकी रहे । मोर काहे सन्तान नैहुइल ? मै साेंच्टी रहुँ । फगत साेंच्टीरनु । मोर आँखी भरके आँस आइल । छाटी जरल । मोर मन छट्पटाइल । सन्तानके छाँहीमे सुस्टाइ नैसेक्ना अनुभव हुइल । मोर वक्षस्थलके दुध जमके ढेल्का बनल अनुभव करनु । निसन्तान रहलके पीडा एक डाइहे किल अनुभव हुइना हो । अपनहे हेर्नु । का मै सँच्मे डाइ बने नैसेकम् ? एकदम मै निसन्तान रहम ? मोर वक्षस्थलमे हरल मातृ वात्सल्य केक्रे कामके नैहो का ? मोर भिट्टर पीडा रहे ओ पीडा भिट्टर मै रहुँ । ममतामय मनके पेंडी भरके अँटाइल मैंयाँ सक्कु बाँकी रहे । कब ओराइल पटै नैहुइल ।

अपन चिठ्रीचिठ्राके सन्टानहे सम्झनु । जिहिनहे मै अपन मातृ वात्सल्यसे रातदिन लहवैटी रहुँ । जिहिहे मै डुवार बन्द करके अपन वक्षस्थलके दुध चुसाउँ ओ ऊ घोपट्या होके मोर वक्षस्थलमे चप्टल रहे । उहिहे मै जैसिक फेन प्यारके लडियामे लहुवाउँ । ऊ ढेर शान्त ओ ज्ञानी रहे । मै मोर हाँठसे उहिहे निक्झोर निक्झोर कराउ ओ पैनु छावा ओ डाइक् ममतामय सम्बन्धके परिचय ।

मोर गोहुँ पिससेकल रहे । पिठा बोकके घरे गैनु । सामान ढैना कोन्टिमे पिठा ढरनु । अपन कोन्टिमे गैनु । कोठाभर मोर सामान छिट्कल रहे । डराज खुलल् रहे । डराज भित्रे रेहे । वहाँ मोर चिठ्रक् छावा नैरहे । कहुँ मोर छावा सामानके कोनुवामे नुकके बैठल बा कि कहिके कोठाभर छिट्कल सामान पल्टापल्टाके हेरनु मने उहिहे नैडेख्नु । मै अक्टा गैनु । ससुइयाहे पुछे गैनु, ‘डाइ मोर कोठामे सामान काहे छिट्कल बा ?’ मोर बाट सुनके ससुइया कलिन्, ‘डराजमे पुरान लुग्रा ओ चिठ्रीचिठ्रा ढेर रहे । उ पुरान लुग्रा ओ चिठ्रीचिठ्राहे भैया बाँसेक् बख्खारिमे भरखर बेगाइ लैगैल ।’

मै उडास हुइनु । डट्के डरैनु । मोर छावा कहाँ हुइ ? कैसिन अवस्थामे हुइ ? उहाँ मोर छावाहे लेके कहाँ गैल हुइही ? मोर छावाहे का करल हुइही ? मै हड्बडैटी अंगनम्से बाहेर गैनु । मै हड्बडैटी बाहेर गैल डेखके ससुइया मोर पाछे पाछे अइलि । लाहिक् खेटुवा हुइटि उहाँ पुरान लुग्रा ओ चिठ्रीचिठ्रा बेगाइ गैल बाँसेक् बख्खारि ओर मै डौरनु । चिठ्रीचिठ्रा ओ मोर झुठ् छावाहे बेगैनासे बचाइक् लाग मै डौरनु । मै डौरल डेखके ससुइया कहली, ‘रि पटुहिया कहाँ जाइ टे ? का हुइल ? काहे डौरटे ?’ ससुइया फेन मोर पाछेपाछे डौरली । उ कहटिहि, ‘रि, पटुहिया रुक… रुक… । कहाँ जाइ टे…? का हुइल टुहिन… ?’

मुना चौधरी
हाल काठमाडौं

चिठ्रीचिठ्रा

मुना चौधरी