गजल
अधिकार सबके सुनिश्चित रहेक चाहि ।
नेपालीनके चाहना संविधान बनेक चाही ।
लालीगुरांस डाँफे मँजोर कृष्णसारसंगे,
हम्रे आपन अस्तित्व अप्नहें खोजेक चाही ।
नारी अशक्त पाछे परल वर्ग हुकन लाग,
अधिकार खोज्टी एकापसमे जुटेक चाही ।
निबुझल भेल्गन्जाहस् काजे सोंच्ठो टुहे्र,
जनताफें टो शिक्षित हुइनै बुझेक चाही ।
यी आदिवासी ओ भुमिपुत्र थारुनके हक,
जात्तिसे लावा संविधानमे लिखेक चाही ।
गजल
मनैनके एकठो डर हुइ सेकठ ।
ओकरफें कौनो जर हुइ सेठक ।
सोच्ठुं उ अबेरसम काजे करठंै
उहिनहेफें केक्रो कर हुइ सेठक ।
फल पैना टो तक्दिर फें चाहठ,
सोंचल उ महल खर हुइ सेकठ ।
सपना ओ रहर सबके भारी रहठ,
किसानके जिन्गी जुवा हर हुइ सेकठ ।
जहाँ कोइ उ मसानघाट कहल,
उह केक्रो स्वर्गहस घर हुइ सेकठ ।
सीता थारु ‘निश्छल’
बर्दिया