अपरिचित पहिचान

विष्णु कुसुम
२४ जेष्ठ २०७८, सोमबार
अपरिचित पहिचान

कविता

कौनो उत्सव रह चाहे बर्का महोत्सव
मै आपन कैक, आपन मान्क
थारु संस्कृति झल्कना
झाँकि लेक सोहावन बनाडेठुँ
शहर बजार ओ गाउँ बस्टी ।

ना कौनो इतिहास बुझ खोज्नु
ना कौनो पुरन्याँ सहिडान बचाइ सेक्नु
आपन भाषा नाहि
महिन आनक भाषा मन पर लागल
आपन पहिरन नाहि
महिन आनक पहिरन मन पर लागल
गल्टी मै फे बाटुँ ओ मोर स्वतन्त्रताफे ।

नोकरी कर्ना बहाना म
आपन गीतबाँस भुला डार्टुं आझ
आपन बोली बचन भुला डार्टुं आझ
गल्टी अप्पने स्वीकार कर्टि
सम्ठर डगर नेंग खोज्टि बाटुँ
महिन फुर्सद नैहो आपन कबिला बनैना
मै कहोरिक बस्टि म झुल्टी बाटुँ
जात्तिसे पट्टा नैहो ।

केउ किल्कोरबो फे नैकरठ
केउ सम्झैबो फे नैकरठ
मोर बोली भाषा ओ संस्कारहे
बेल्सना बात कहाँ हेरागैल
थारुन्के मैगर हरचाली
थारुन्के मौलार बोली
मै अप्न्ही आझ अन्जान बाटुँ
आपन पहिचानसे
उह मारे घनिघनि कनास लागठ
डुनु हाँठ गाल पकरके
मै कसिन
मोर कसिन
अपरिचित पहिचान
अपरिचित पहिचान ।

विष्णु कुसुम
घोराहि-१७ दाङ

अपरिचित पहिचान

विष्णु कुसुम