पस्ना

छविलाल कोपिला
१ असार २०७८, मंगलवार
पस्ना

पस्ना
सोन केक्रोे कल्पनामे नैफरठ्,
केक्रो सपनामे फेन नैफरठ्,
ना टे फरठ्, केक्रोे भावनामे
उ टे फरठ्,
पस्नक बहटु लडियक् बिचमझुवामे ।

भुँख्ले पेट पस्ना चुहाके
जमिन उर्बर बने सेकठ्
समठर हुइ सेकठ्,
ओ, फराक् फेन हुइ सेकठ्
मुले, इ ढर्टिमे
अँखुवा निकरके हरयर बने नैसेकि ।
अँखुवा टे गुड्गर डानामे निक्रठ् ।
मुले, इहे डसा भोग्टि बा
मोर माटि
ओ, निरिह जिन्गि जिटि बा पस्ना ।

टिपुन्ना टुरके
हरयर बैठाइ नैसेक्जाइ
ना टे सेक्जाइ,
जिन्गिक् साँस फेरे
जिन्गि ओजरार पर्ना टे
पस्नासे लहाके
हरेक आँखिमे घाम लागे परठ् ।

पस्ना लुटे
यहाँ एक बगाल भ्रम
रंग–बिरंग फुलुंगा उरैठाँ बयालमे
अपन ओर टानक् लग
डोसर बगाल झँुठ्
मनभरके आस्वासनके भुवा उरैठाँ
मुले, पस्ना अपन विवेकमे
लडिया बनके लग्टार बह्टि रहठ्
एहोंर, भ्रम ओ झुँठ्
डुनु पाँजरसे हेर्टि रठाँ पस्नाहे ।

टब,
सटरंगि ढानी उँप्पर चौर्हके
जब, पस्ना ढर्टिमे अँराइठ्
पियासेले छट्पटैटि रहल्
मोर माटि हाँसठ्
ओ, सुन्डर सिर्जना करठ् ।
एहोंर, आढा राटमे मनके टलवाभर
पुरैन फुले लागठ्
ओ, अमावँसके अँढरिया राट फेन
मुस्कुराइ लागठ् ।

छविलाल कोपिला
लमही नगरपालिका–८, उत्तर मजगाउँ, डेउखर दाङ

पस्ना

छविलाल कोपिला