पहुनी

छविलाल कोपिला
९ असार २०७८, बुधबार
पहुनी

पहुनी

मै डेख्लुँ
उप्टा बैसमे भरल
उ लावा पहुनिक् खिस्सा
ओ डेख्लँु हुँकारमे,
पल पल शब्द भावके बयाल स्पर्श करट्
अंग अंगमे भुँइचालके तरगं उठट्
घुर्घुटी कोकन् टोपके सरमाइट्
ओ सोहागरातके मिठ कल्पनामे हेराइट्
जहाँ ऐनामे भ्रमक सुन्दरता बिल्गाइटहे ।

मै उ फेन डेख्लुँ
उ कर्निडिया रातमे
झँकियाके हेरे आइल् मोंकक् केरनी संगे
नाबालक पतिके अबोध अनूहार बार बार हेरट्
डँडुर मैयाँ ओ मिठ कल्पना जुर जुर हुइटी
ओ कैयौँ रात कच्चे आखँ बिहान हुइट् ।
ओस्टक नैनी तालमे आँसके छाल उठट्
ओ बर्सट डेख्लुँ सावन
आँखीक् बर्हनिक छरनीटिरसे
जहाँ कुम्भकर्ण निडिक् आघे
चुरियक मधुर झन्कार फेन हेराइट् कहोर कहोर ?
हो यिहे पीडा, यिहे कर्मना
उ सतरगं गोंडरीमे बिन्टी रही
मुले, के बुझी हूकाँर जियाके बात ?

विचारी ! मुँह फोरे नैसेक्ली टे का ?
हुँकार फेंच्रार झोंटीमे बैश फुलट् डेख्लुँ
सिँर्हट्टक फुन्नामे सप्तरंगी इन्देणी झलट् डेख्लुँ
बिंरक फुल्रामे जवानी उल्रट डेख्लुँ
ओ डेख्लुँ,
कुवँक टक्ठा परसे पानीमे बौनी
जे खिलखिलाके हँस्टी रही ।
हो, उहे मधुर मुस्कानके खातिर
रोस्नी आँखिक सन्की नजर मारट्
ओ कैयौ लोभौरी हाँठ नफाइट् डेख्लुँ
जवानी फेक्रल फुला टुरक लग,
सयानी हौका बयाल ना हो
कबो यहोर लहराइठ, कबो ओहाेंर छल्कठ्
सायद यि फेन डेख्लुँ
पुन्वाँसी रातके उ ओजरियामे
बार बार अज्ञात आकृति
हुँकार छल्काल बैस उठाइट् ।

हो, मोरठन उ साँखी बयान बा
साेंच्ले रहुँ,
कौनो दिन कचेहरीमे पेश करम कैह्के
झोँटीमे अँट्कल कुर्कुट
घुरौरापर बिछाइल गटिया
डन्गामे अँट्कल झोबन्डा
झुलवामे चप्ट्याइल टिक्ली
ओ बेन्हवाँ फन्कलक् पदचाप ।

जब, मै डेख्लुँ,
हुँकार बिनल् पनवाँठार नुइयाँ, सुप्लीसंगे
नन्डिया बुक्रिबाला खेलट्
सतरंग गोंडरीमे लेल्हारा बैठल्
ओ ढकियामे पहुरा लेके पहुनी खाइ जाइट्
संगे उ फेन डेख्लुँ,
बहटी पवनमे जवानी फर्फराइट् अँचरा
छातीम् पुन्वाँसी रात चम्कट चँडरहार
अनुहारमे बिहान उठट् माठके मँगिया
नाकेम् आकांक्षाके बहला झुलट् नठिया
कानेम् सपनाके सिताराडार झलट् हस्
झिल्मिलाइट झिलमिल्या
हाँठेम् सोनमे सोहावन चुरिया
ओ गोरामे मधुर संगीतके झन्कार उ पैरी
जहाँ डेख्लुँ मै हुँखिनहे पुरा पहुनी ।
छविलाल कोपिला
लमही–५ उत्तर मजगाँवाँ, डेउखर दांग

पहुनी

छविलाल कोपिला