बौनी

बिनिता चौधरी
३० असार २०७८, बुधबार
बौनी

कथा
बौनी

ओजरिया रात, सक्कु ओर ओजरार, डेवारीक समय, चक्ढौं चक्ढौं..मन्द्रक आवाजले मोर निंड नैपरटहे । किहुसे बोलक् बट्वाइक् लाग टे सबजाने डेवारी मन्नम व्यस्त रहिँट । बाबा मट्वार होके सुटल रहे । डाडु भइवन अपन संघरियनसंगे नाच हेरे गैल रहिँट । डाइ मामन् घर डेवारीक् टिका लगाइ गैल रहे । मै अक्केली कोन्टीम ओन्ड्रल रहुँ । मोका डगर जोन्ह्यँक ओजरार कोन्टीम झाँकटेहे, मानो महिन बलाइटा, अपनसंसे खेले । मैं उठ्लुँ खटियाहे घिरियाके मोकक् सोझे टन्लुँ ओ सुट्गैलुँ । निंड नैपरल, मुरी उठाके मोका डगर बाहर हेरे लग्लुँ, आँखी सिधे जोन्ह्यँक पर परल । निस्छल अनहारसे मुस्कानके रुपमे ओजरार फैलैटी चम्चमैटी पहिरनमे जोन्ह्याँ झलरमलर टोंरैंयनके बिच्चे मानो स्वर्गके परि सजसवँरके अपन सखिन्संगे सयरमे निकरल बा ।

भरल पुरल जोन्ह्याँहे डेख्के केकर मन नै लल्चाइ । सायद उहे मारे हुइ उत्तरक कोन्वँमसे बद्री अपन अलग अलग आकृति बडलटी ढिरेढिरे आइल ओ जोन्ह्याँहे अपन कोनामे नुक्वाँ लेहल । मै निरास हो गैलुँ । महिन लागल, केउ मोर मन मिल्ना संघरियाहे महिसे डुर कइ डेहल । मै मनमने गरियाइ लग्लुँ कि टब्बेहेँ जोन्ह्यँक ओजरार ढिरे ढिरे बाहेर निकरे लागल । जानो कि उ महिसे आँख मिचौली खेलटा । कबु चारुओर ओजरार फेंके टे कबु अन्ढार कैके बद्रीक कोनामे नुक्जाए ।

‘बाबा’ कना आवाजले मै अपन कल्पनाके संसारसे बाहेर आके हेरलँु टे बाबा बेखबर होके सुटल रहे । मै उठके खटियामे वैठ्लँु ओ डाइहे सम्झे लग्लुँ टे बुडीक् कहलक बात याद आइल, अरि हमार घर का खैना पिनक डारी बा, टरटिउहार आइठ टे अपन लैहर जाउँ जाउँ कैठे । घरेम आइल पहुनी पहुनन् मजासे खवाइक् पिवाइक टे जब फें टाँग उठैले डेख्वो । बुडीक् जियट घरीम डाइ कब्बु मामन् घर नै जाइक पाए । कबु कबु किल जाए, उ फेर नानी डेरा ढैले रहे टब्बे किल । सकारे निंढ पकाके, ढन्ढा उसारके जाए, फेन सन्झा बेरी निंढ्ना जुन आ जाए । मामन् घर एल दुर फेर टे नैहो, कुल्वक् ओँहपार डुइ घर छोरके टे हो जे ।

जब टिउहार आए टे डाइ डिनभर भन्सम डट्करल रहे । बुडी अँगना मनिक रुखुवाटिर बैठल डोना छेडे ओ फुइनसे बट्वाए । बिच बिचमे डाइहे गरिया लेहे । ‘अरि सेक्ले कि नाइ भुँखे मुवा डारी आझ बाबुन् हे ।’ डुन्याँडारीसे बेखबर डुनु फुइनके लर्का ओ हम्रे तीनु भइवा बहिन्याँ डोन्यम् खैना बोक्ले अँगनामे नेँगनेँग डिनभर कट्रा खाइ, जोखे नैसेक्जाइ ।

जब रात होए, टब सक्कु जाने सुट्जाइँट टे डाइ बाबु री, बाबुऽऽ निंडा गैले ? सुग्घुरसे सुट्, यी लवन्डी सुट्टि किल निंडा जाइठ । मोर मुरी सुहराए ओ कहे, वहाँ टोर मामन् घर सक्कुजाने गल्गलाइठुइहीँ, जट्रे रात हुइट ओट्रे टोर नानीक् पुरान पुरान बाट निकरठिस् । ओम्हे टोर छुट्की मौसी छप्या डार ठुइ टे सब जाने हहराइठुइहीं । डाइक् हाँठ उस्टाके मै कहुँ–ना बोल डाइ, सुटे डे अइसिन निंड लागटा । मोर बात बिन ओनैले डाइ अपन बाट बरबराइल करे । कैना फें का करी बिचारी, सुख दुःखके बात बटुइया मनै फेर टे चाहल । बुडु मुअल टबसे घरक जिम्मेवारी सक्कु बाबक् मुरीमे रहिस । डिनभर खेटवम् काम करे । सिहरल साँझके जब घरे आए टे जाँरक मिझ्नी खाके सुटे, टब एकफाले सकारे उठे । सारीसाह टे मै डाइक सँगेसँगे रहुँ । सबजाने कहिंट, पेट पोछ्नी छाइ अइसिन छिहलाइल बटिन, डाइहे अक्को छोरे नैसेक्ना । हुइना फें हो डिनभर टे मै एहोर ओहोंर खेल लिउँ, मने रातके भर डाइहे बिना पकरले मोर निंड नै आए, अभिनटक नैआइठ ।

उहे मारे हुइ आझ फेर मोर निंड नैआइठो । डाइ टे कहटेहे चोल छाइ जाइ मामन् घर, काल्ह सकारे आ जाबी । टिनाटावन सक्कु चिज पलि बा, एक भोक्टी जाँर छाबडेब, टोर बाबा गाउँ ओरसे डेवारी मानके अइही टे खा पिके सुट्जैही । मै कलुँ–मै नै जैम टैं जा, वहाँ सक्कु जाने आइल हुइहीँ । अब्बे टे मामा खिझ्वाइ लग्हीँ, भैने कैसिन डुल्हा लेबो, पैन्ट घल्नाहा कि लगौंटी पेहल ? डुर कि लग्गे ? कुर्सीम बैठ्नाहा कि हर जोट्नाहा ?’ का का हो का का मामा टे रुवइनाअस् कै डरठाँ । अस्टे बानी होके टे गाउँक मनै सोँग्या चौधरीयक् नाउँसे चिन्हठिन् ।

रात बह्रटी गैल । जोन्हियाँ मोर कोन्टीक मोकाओरसे बिल्गाइ छोरडेहल, कोन्टी अन्ढार होगैल । अंगनाओर जुन आउर ओजरार बिल्गाए । मै उठ्के अँगनाओर गैलुँ । टवाटिक ओजरार डेख्के डाइक् ठेन जैनास लागे लागल । घरे मजाके बहरीम ढैल चप्पल घल्लुँ, लावा गटिया परलँु ओ डवार भट्काके चल्डेलुँ ।

गाउँमे नाटक हेरुइयनके चहलपहल रहे । हाली हाली नेंग्टी डख्नक् बाँसेठे पुग्लुँ टे लागल, किउ मोर पाछे पाछे आइटा । मै अस्याइ अस कैलुँ टे केक्रो चालचुले नै । मोर जिउ ठरठराइ अस् करल । टबु पर आँखर मन कैके आघे बह्रलुँ । दुई तीन पैला का नेंग्लु फेरसे ओस्टे चाल । के हो कैहके नेंग्टी टिर्छेसे पाछेओर हेरेअस कैलँु टे झुक्मुकाइट डेख्लुँ । मोर सास फुले लागल । मै आँख बन्द कैके डौरे लग्लँु । मैं जस्टेक डौरुँ, उ फें ओस्टेके डौरे । बिच बिचमे मोर गटिया पकरके टाने अस करे । मै चिल्लैटी कब मामन्के अँगनामे पुग्लुँ, पटे नै चलल् ।

के हो ? के हो ? का हुइल ? का हुइल ? आवाज सुनके मोर होस आइल । सक्हुन अँगनामे ठरह्याइल डेख्लु टे डरैटी ढिरेसे कलु कने के जाने हो महि डुरुवाइटेहे । मामक् छावा बर्का डाडु के हो रे ? केकर हिम्मत बा मोर बहिन्यँक् पिछा कैना ? खै केहोर भागल सारेक कहटी गाउँओर चलगैल । माइ भुन्भुनाइ लग्ली भैने फेन, लवन्डी मनै रातबिरात अक्केली नेंग्ना कुछु हो ओ जाइट टे ? बाबु ठपल– अइया डाइ री, उहे डख्नक बाँसे ठन टे भुटुवा निकरठ कटिहुँन । सबके बाट सुनके डाइ कहल–मै कटी टे रहुँ, चोल सँगे, मन्बे नै करल, आब नै अक्केली आइक परल । चोल सुटे कुछु नैहुइ, काल्ह सकारे गैरान टोर बुडुसे आछट हेराडेम ।

मै डरैलक् घटनाले सक्कुजे अपन अपन बात पकरले रहिँट । केउ का कहे, केउ का । मै घरक भिट्टर जाइकलाग आपन लुग्गा झराइ लग्लुँ टे पाछे गटियक् झब्बामे अट्कल बाँसक झङ्ली भेटैलुँ । उही छुराइक् लाग लिहुरलुँ टे आपन बौनी झुकमुकाइट डेख्लुँ । टब मोर समझमे आ गैल कि उ के रहे ।

मोर गटिया टनुइया ओ पछेरा करुइया भुटुवा आउर केउ नै मोरे बौनी (छाँही) ओ बाँसक् झंगली रहे । अपन उपर अपनही हँस्टी गटियम् अट्कल बाँसक् झंगलीहे एक नजर हेरके अँगनामे बगैलँु ओ मुस्कुरैटी डाइक् सँगे भिट्टर चल डेलुँ ।

ओहोर गल्लीम् डेवहरिया मन्ड्रक मेरमेरिक खोट बज्टी रहे । मै जुन डाइक् संग भेटैटी कि पठरीम् नाक बजाइ लग्लुँ । कानेकाने डाइक् आवाज सुन्लुँ–बाबु री, बाबुऽऽ निंडा गैले ? सुग्घुरसे सुट्, इ लवन्डी यल सुट्टी किल निंडा जाइठ टे का ।
बिनिता चौधरी
सिसहनिया दाङ डेउखर, हाल : नेपालगञ्ज

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बिनिता चौधरी