पहुनी

छविलाल कोपिला
१० श्रावण २०७८, आईतवार
पहुनी

कविता
पहुनी

मै डेख्लुँ
उप्टा बैशमे भरल
उ लावा पहुनिक् खिस्सा
ओ डेख्लँु हुँकारमे
पल पल शब्द भावके बयाल स्पश करट्
अंग अंगमे भुँइचालके तरगं उठट्
घुरघुटी कोकन् टोपके शरमाइट्
ओ सोहागरातके मिठ कल्पनामे हेराइट्
जहाँ ऐनामे भ्रमक सुन्दरता बिल्गाइटहे ।
मै उ फेन डेख्लुँ
उ कर्निडिया रातमे
झँकियाके हेरे आइल् मोंकक् केरनी संगे
नाबालक पतिके अबोध अनुहार बारबार हेरट्
डँडुर मैयाँ ओ मिठ कल्पना जुरजुर हुइटी
ओ कैयौँ रात कच्चे आखँ बिहान हुइट् ।
ओस्टक नैनी तालमे आँसके छाल उठट्
ओ बर्सट डेख्लुँ सावन
आँखीक् बर्हनिक छरनीटिरसे
जहाँ कुम्भकर्ण निंडिक् आघे
चुरियक् मधुर झन्कार फेन हेराइट् कहोर कहोर ?
हो यिहे पीडा, यिहे कर्मना
उ सतरगं गोंडरीमे बिन्टी रही
मुले, के बुझी हुकाँर जियाके बात ?
विचरी ! मुँह फोरे नैसेक्ली टे का ?
हुँकार फेंच्रार झोंटीमे बैश फुलट डेख्लुँ
सिँर्हट्टक् फुक्नामे सप्तरंगी इन्द्रेणी झलट डेख्लुँ
बिंरक् फुल्रामे जवानी उल्रट डेख्लुँ
ओ डेख्लुँ
कुवँक् टक्ठा परसे पानीमे बौनी
जे खिलखिलाके हँस्टी रही ।
हो, उहे मधुर मुस्कानके खातिर
रोश्नी आँखिक सन्की नजर मारट्
ओ कैयांै लोभौरी हाँठ नफाइट् डेख्लुँ
जवानी फेंक्रल फुला टुरक लग
चाहाना, बयालके रफ्तार
बारबार डौरट डेख्लुँ
उ सुन्दर सपना अछोरक् लग
सयानी हौका बयाल ना हो
कबो यहोर लहराइठ, कबो ओहाेंर छल्कठ्
सायद यी फेन डेख्लुँ
पुन्वाँसी रातके उ ओजरियामे
बारबार अज्ञात आकृति
हुँकार छल्काल बैश उठाइट ।
हो, मोरठन उ साँखी बयाल बा
सोच्ले रहुँ,
कौनो दिन कचेहरीमे पेश करम कैह्के
झोँटीमे अँट्कल कुर्कुट
घुरौरापर बिछाइल गटिया
डन्गामे अँट्कल झोबन्डा
झलवामे चप्ट्याइल टिक्ली
ओ बेन्हवाँ फन्कलक् पदचाप ।

जब, मै डेख्लुँ,
हुँकार बिनल् पनवाँडार नुइयाँ, सुप्लीसंगे
नन्डिया बुक्रीबाला खेलट्
सतरंग गोंडरीमे लेल्हारा बैठल्
ओ ढकियामे पहुरा लेके पहुनी खाइ जाइट्
संगे ऊ फेन डेख्लुँ,
बहटी पवनमे जवानी फर्फराइट अँचरा
छातीम् पुन्वाँसी रात चम्कट चँदरहार
अनुहारमे बिहान उठट् माठके मँगिया
नाकेम् आकांक्षाके बहला झुलट् नठिया
कानेम् सपनाके सिताराडार झालर हस्
झिल्मिलाइट झिलमिल्या
हाँठेम् सोनमे सोहावन चुरिया
ओ गोरामे मधुर संगीतके झन्कार उ पैंरी
जहाँ डेख्लुँ मै हुँखिनहे पुरा पहुनी ।
छविलाल कोपिला
लमही ५ उत्तर मजगाँवा, डेउखर दांग

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