कविता: बर्खा

दिपक चौधरी
२१ असार २०८०, बिहीबार
कविता: बर्खा

कविता

बर्खा

असार, सावनके चरचरौवा घाम
हर जुवा, छट्रि मच्या खेट्वम् काम
सिट्टर पुर्वा बयाल बर्खैह्या रिमझिमसे
उरट बक्ला सोहावन घन्घोर कर्या बड्रिसे ।

पस्नासे भिजल डेँह आमिल महकट
डेँह भर उसुइ झिल्का फोटङ्गा चम्कट
घाम पानी हिलामाटिसे खेलट जिउ बर्खामे
खेट्वा चम्पन लागठ बट्कुहि सजना मैनामे ।

पच्छिउँसे उम्रट बड्रि गर्जटि बिज्लि चम्कटि
डेँह झम्झमाइट जिउ डराइट सुन्के बड्रि ठर्कटि
मेघिन्के टेँरटुर किरन्के झ्याउँझुउँ साँझके बेला
टाटुल जुर पानीसे हिला बनठ हरेक उम्काइल ढेला ।

भिन्सारेसे खन्मन खुनमुन भाँरा बोलट घरमे
आँह टकटक सुनाइ मिलट जोँटट खेट्वा हरमे
डाइ कहट उठो हालि जाउ खेट्वा बियार लगाइ
बैठल खैबि नाइ परि डुनियँक् आघे हाँठ फैलाइ ।

बाबा कहट् जोर लगाउ खेट्वा सेक्बो हरडह्वा खैबो
जिट्टि डेँह सरल बा खैबो पिबो सरलह्वम् झेर लगैबो
बर्खा लागट् हिल्लम् कर्बो खेटि बरस भरिक् टामझाम
साँझ बिहान हाँठ मुँह जोर्बो सुट्के खटियम् कर्बो अराम ।

दिपक चौधरी “असीम”
कैलारी २ बसौटी, कैलाली

कविता: बर्खा

दिपक चौधरी