सहकारिता

सागर कुस्मी
२१ असार २०७८, सोमबार
सहकारिता

कविता
सहकारिता

अझकल बर्की भौजीक्
मुहार बहुट चम्पन बिल्गैठिन् ।
काहे कि हुँकार माँगम् सेंडुर,
माठेम् टिकली, आँखीम् कजरा,
नाकम् फुली, ढेबरम् लाली भरल बटिन् ।

रातदिन पस्ना चुहाके
साँझ बिहान हाँठ गोरा सराके
जत्रा करलेसेफेन
खाइ लगाइ नैपुग्ना मनैंन्के
अझकल,
छाइ छावा स्कूल जाइ भिरल बटिन्
जट्टिसे बर्की भौजीक् मुहार
बहुट चम्पन बिल्गैठिन् ।

फ्टल करम रसाइल बटिन्
विगतहे सँपारके
वर्तमानमे
फुलाहस् मुस्कुराइटिन् भौजीक् भविष्य ।

एक एक आना बचाके
लर्पापर्कनके लाग
कापी, किताब, कलम किन्ना जुहाइटिन्
आँगम् एक जोर लुगरा घाले पुगटिन् ।

केक्रो भरमे जिए नैपरठुइन्
खानेपानी, बट्टी, फोनके बिल टिर्ना,
साँझ बिहान चाउर, दाल, टिना टावन किन्ना
लिरौसी हुइल बटिन् ।

आझ, बर्की भौजी
नारी होके घरक् ढुरखम्भा बनके
डेखैले बटिन् यी समाजमे ।
हुँकार आँखीमे डुखके नाही
सुखके समुन्डर छल्कटिन्
यी सब डेखके सारा डुनियाँ अचम्म बा ।

आझ,
हुँकार काम डेख्के कैंयो
डिडी बहिनियाँ, डाडु भैया
लोग फेन मुस्कुराइ भिरल बटैं ।

मै एकदिन हुँकार घर जाके पु्छ्नु
भौजी अत्रा प्रगति कैसिक करलो ?
भौजी,
अपन घरक् डुरहिम्से मुस्कुरैटि कलिन्
भैया यी टे सब सहकारिता के देन हो
जौन दिनसे मै सहकारीके सदस्य बन्नु
जौन दिनसे मै सहकारीके सदस्य बन्नु
ओ फेन कहलिन्
भैया आब टुँ फेन
सहकारीसे सहकारिता कैके जिए सिखो ।

सागर कुस्मी
लेखक् कैलालीसे प्रकासित हरचाली साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिकाके प्रकासक ओ सम्पादक हुइँट् ।

सहकारिता

सागर कुस्मी

लेखक् कैलालीसे प्रकासित हरचाली साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिकाके प्रकासक ओ सम्पादक हुइँट् ।