भदौ सात

अनिल थारू
३२ श्रावण २०७८, सोमबार
भदौ सात

कविता
भदौ सात

आइल बा अभिन इतिहासके
छाटी म लग्लक बट्राहा खाटि
उ भदौ सात
कसिक बिस्रैम ना ? कैंयाँकुचिल
उ अन्ढार रात
सिपैन्हक भेस म अइलक डैटुर्वन
जब कर लग्ल हाँठ हाँठ
खडेर्वा पैली कहो अपन घरमसे
राता रात
अट्रा सुहावन टीकापुर हँ
रगटके छिटापुर बनुइयन
बन्ढुकिक् गोली सोझार लग्ल
जब छाती छाती म
छान छान के जबरजस्ती कर्ल
थारू जातीन म
बैशख्या बौखासे फे जिट्क
हमार पस्नक् महल भस्काडेल
अत्याचारके आँढि लानके सल
बस्ति झस्काडेल
बर्का डाडु घिघ्याइटी भागल बिचारा
डोस्र उल्ट वाकर नाउँम देशद्रोहीके
मुद्दा ठस्काडेल

कसिक बचैना हो ?
अपन जाति ओ माटि ?
ढक्ढिउरक् लिल्हारीम उठल बा
कब्बु नै चोखैना खाटि
पहिचानके डिया बुटाइ ख्वाजट शाषक हुँक्र
आब के उस्काडी उ मौलिकताके बाटि ?
आइ ख्वाज ट डु गोर्या पसन
कसिक बचाइ अपन सभ्यता के खेतीपाती ?
केक्रो आघ हाँठ नैफैलिना थारू जात
आझ न्यायके भिख मांग पर्टा
खबरदार
फें भदौं आइटा, चिरारीमसे चिंगैरा
घरक सन्ढ्री कोन्वमसे बस्ला, बाँका, भाला
बौसा सब्जे जुलुस लेके
भदौंह्वा उ गाम्हँर धान फें
अधिकार ओ समानताके बाला फराइक लाग बा
हम्र काहे चुमाइल बाटी ?
उठो थारू जागो अत्याचारके चक्या ओ दमनके
डोक्नी म पिस्वा पाके ढुर पीठा हुइलक थारून
प्रतिकारके पानी डारके एकताके ढिक्री पारक लाग
उठो जागो उठो ।

अनिल थारू
बर्दिया

भदौ सात

अनिल थारू